धुन में / पद्मजा शर्मा
(शरद जोशी की कहानियों पर आधारित धारावाहिक ‘लापतागंज’ देखने के बाद)
वो अपने लिए नाचता-गुनगुनाता
धीरे-ज़ोर से बोलता
मैं सोचती
मुझे सुनाने या मुझसे छुपाने के लिए ऐसा करता है
मेरी प्रतिक्रिया की कोई क्रिया नहीं
अपनी ही धुन में
डूबा रहता है
शायद यादों की नदी में
कभी तो यह भी लगता कि
इस दुनिया का प्राणी ही नहीं
जाने किस आनंद में खोया ही रहता
जबकि पीने का साफ पानी तक नहीं था मयस्सर
हाँ, आँखों में पानी था
मन में दया-ममता
तभी तो रातों में जाग-जाग कर
भूखे बच्चों को ढूँढा करता
खाना खिलाया करता था
उन अनजानों को गोदी में उठाया करता
थपकी देकर सुलाया करता था
सुख की नींद सोते देखकर मुस्काया करता था
उसके लिए सब से बड़ा सुख यही था
सच तो यह है कि अपनी बनाई दुनिया का
स्वंयभू बादशाह था
इस सोच से कोई ख़ुश रह पाता है
किसी का क्या जाता है
चारों तरफ घूम रहे गुलाम ही गुलाम
असम बादशाह भी सिवाय
मेरदंडविहीन गुलामों के क्या पाता है
इसलिए कुछ कल्पना, थोड़ा झूठ सरीखा झूठ
बोलकर भी
कोई ख़ुश रहता है तो रहने दो
दुख के यथार्थ समंदर को भुलाकर
सुनो दोस्त ! सुख की छोटी-सी काल्पनिक नदी में
कुछ पल ही सही
मगन कोई डुबकी लगाता है तो लगाने दो।