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धुले परदे कोमल से वो हाथ खींचे / बलजीत सिंह मुन्तज़िर

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धुले परदे कोमल से वो हाथ खींचे ।
तभी जाके सुबहा खुलेंगे दरीचे<ref>खिड़कियाँ</ref> ।

यूँ मुरझाए बिरवे लगे लहलहाने,
दबे पग वो आए जो मन के बगीचे ।

किसी फूल की मैंने हसरत<ref>अभिलाषाएँ</ref> को रक्खा,
संजो कर क़िताबों के पन्नों के नीचे ।

वफ़ाओं की टहनी पे खिल आए ग़ुंचे<ref>कलियाँ</ref>,
तो एहसास हमने मुरादों<ref>कामनाएँ</ref> से सींचे ।

ज़बाँ पर कई रंग-ओ-बू के फ़साने<ref>कहानी, वृत्तांत, बातें</ref>,
मगर वो के शरमा के होंठों को भींचे ।

है पुरनूर<ref>पूर्ण प्रकाशमान, रोशन</ref> चेहरे में क्या ताज़गी, के
सुबहा फूल उस पर यूँ शबनम<ref>ओस</ref> उलीचे<ref>फैलाना</ref> ।

है गुलरुत<ref>वसन्त ऋतु</ref> की शब<ref>रात, fनशा,</ref> का तसव्वुर<ref>कल्पना</ref> के fजसमें,
न मैं सोने पाऊँ न वो आँख मींचे ।

ये कंगन, ये काजल, ये बिन्दिया औ’ पायल
सभी कुछ तो है नाज़नीँ<ref>अच्छे हाव-भाव वाली</ref> तेरे पीछे ।

उम्मीदों के fजस फ़र्श<ref>जमीन</ref> पर हम खड़े थे,
दरक<ref>दरार आना</ref> से गए हैं अब उसके ग़लीचे<ref>कालीन</ref> ।।

शब्दार्थ
<references/>