भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धूड़ है जीणो जे नीं घर अठै / सांवर दइया
Kavita Kosh से
धूड़ है जीणो जे नीं घर अठै
आ सोच परो बांध्यो म्हैं घर अठै
दो जणा मिलता जद आ कैवता
हालो हालां आपणो घर बठै
हरख बधाया हुई इण आंगणै
घराळां नै हुयो छोटो घर अठै
चूंच में दाणो ले चिड़ी बोली
रांधसूं, खणासूं, खासूं घर जठै
ऐ नुंवा कमरा ऐ नुंवी भींतां
खाली आं सूं हुवै घर घर कठै