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धूप, हवा और शोर / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय
Kavita Kosh से
धूप, हवा और शोर
करने को अपदस्थ लगा रहे पुरजोर
मथ रहे लगातार टूटकर
अट्टहास करते, खीस निपोरते अपना पूरा जोर
तन है कि थकता जाता है
मन है कि रमता जाता है
जीवन होता जाता है विचलित, जैसे
वन मचलता जाता है किसी जवानी की ओर
घोर, घनघोर
ताबड़तोड़ बरसा रहा आग
पगलाया हुआ आसमान क्रोध में
घन बज रहा दिमाग में संकट बढ़ रहा हर ओर
भाग रहा जन
कर रहा अनवरत कुछ प्रण
घूमकर न ताकता इस दौर
देखता आगे ही बस कैसा अगला ठौर ॥