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धूप-छांव / लालित्य ललित

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क्या किसी ने पूछा है
कभी दुख से
कि भाई तू कौन है
कहां रहता है
क्यों आता है
कहां जाता है
तेरी मियाद कितनी है
क्या तू क़िस्तों में आता है
वगै़रह इत्यादि आदि
- किसी को नहीं पता
सब कतराते हैं
दुख से और ‘सुख’
हर कोई चाहता है
लूला लंगड़ा अंधा कोढ़ी सब
टपोरी, नेता, भिखारी,
अफसर, चपरासी सब
सुख चाहते हैं
आपका नाम क्या है
जी मेरा नमा ‘दुख’ है
लोग मुंह सिकोड़ लेंगे
कन्नी काट लेंगे
कहेंगे - बंधु, पहले आता तो -
मदद कर देता अभी तो दिए हैं
और ‘सुख’ आ जाए तो
आइए बैठिए अरी सुनती हो !
श्रीमान ‘सुख’ आए हैं
जरा ‘ठंडई’ और काजू ले आओ
और आगरे का पेठा और
इंदौर का पोहा ज़रूर लाना
परिभषा आपके सामने है
बात स्थिति की है
कि आप का ‘वजू़द’ कितना है
और आप का ‘तौल’
कितना भारी है ?
ईश्वर सब जानता है
लोगों की रग-रग पहचानता है
उसी ने बनाए हैं
धूर्त, पाखंडी, शिक्षक, नशेड़ी
वाक़ई बड़ा बलवान है
रमई काका ने सुपारी चबाते
हुए बात पूरी की - अरे का भाई !
ससुर सारा दिन चबाते रहते हो
जल्दी जाना है का ?
जहां तेरी काकी गई है
वो तो है आख़िर सबने जाना है
ईश्वर ने मुस्कराते हुए
बात पूरी की