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धूप का रंग आज काला है (ग़ज़ल) / अमर पंकज

धूप का रंग आज काला है,
ढूँढिए तो कहाँ उजाला है।

चौंकिए यूँ नहीं अँधेरों से,
अब सियासत का बोलबाला है।

ख़ुद मुझे लूटकर लुटेरों में,
नाम किसने मेरा उछाला है।

छोड़ दी जबसे वह गली मैंने,
दिल को मुश्किल से ही सँभाला है।

है कशिश उनमें ऐसी के हमने,
उनके साँचे में ख़ुद को ढाला है।

पूछ मत क्या किया है जीवन भर,
मैंने हर शख़्स को खँगाला है।

हैं सुखनवर कई यहाँ नामी,
पर ‘अमर’ का कहन निराला है।