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धूप का विरान मरु-वन : मेघपंखी साँझ / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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नीम के पत्ते नहीं हिलते!

शून्य के अंतिम सिवाने पर
फिर उदासी बुन रहा मौसम
टूटने को ही नहीं आता
डालियों के टूटने का क्रम

हरसिंगरी गंध मुरझाई
फूल शाखों पर नहीं खिलते!

धूप के वीरान मरु-वन में
मेघपंखी सांझ फिर भटकी
लौटकर आये नहीं पंछी
घोंसलों की सांस है अटकी

इन थमी, सहमी हवाओं में
चैन के दो पल नहीं मिलते!

आज तक भी थरथराता है
आंख के आगे वही चेहरा
छोड़ आये थे बहुत पीछे
हम जिसे डूबा हुआ गहरा

जख्म जो पिछले पड़ावों पर
छिल गये, वे अब नहीं सिलते!