सूरज के सिरहाने बैठा अँगरेज़ है, 
धूप बड़ी तेज़ है, धूप बड़ी तेज़ है।
चालू-पुरजे, हरफ़न मौले चारो तरफ़,
हौले-हौले मौसम खौले चारो तरफ़,
होंठ हवा के फटना हैरतअंगेज़ है। 
पाँव देख-देख किए मन उदास मोरनी,
टुकर-टुकर ताक रही प्यासी कठफोरनी,
बून्द-बून्द का क़िस्सा फिर वहशतखेज़ है।
ताप-ताप चीख़ एक-सी इसकी-उसकी,
आँख-आँख दरिया, आँसू-आँसू सिसकी,
पानी-पानी मन पर सहरा की सेज है।
ऐसी लू-लपट चली चट्टी-दर-चट्टी 
अपनी ही आँच-आँच पिघल गई भट्ठी
ठूँठ खड़ी चिमनी को धुएँ से गुरेज है। 
छाँव-छाँव बरगद ने चाल चली गहरी 
डाल-डाल, पात-पात सज गई कचहरी 
सोने की कुर्सी है, चाँदी की मेज़ है।