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धूप मुक्की से वैसे ही झाँकेगी / अदनान कफ़ील दरवेश
Kavita Kosh से
धूप मुक्की से
वैसे ही झाँकेगी रोज़ सुबह,
पछुवा वैसे ही बहेगी
और धूल झोंक जाएगी कमरे में
पँखा अपनी रफ़्तार
नहीं बदलेगा
मैं वैसे ही चारपाई के पायताने
घुटनों पर सिर रख के बैठूँगा
हाँ, खूँटी से
कुछ कपड़े कम हो जाएँगे
बरसात में
पूरब की दीवाल भीगेगी
लेकिन उसे देखकर
कोई चिन्तित नहीं होगा अब
मेज़ पर पाकीज़ा आँचल
अब शायद
कभी नहीं दिखेगा
बस, रोज़ रात को
पच्छिम की दीवाल गिरेगी मुझपर
घड़ी की हर टिक-टिक के साथ
किसी की याद बहुत आएगी
जो अब इस कमरे में
कभी उपस्थित नहीं होगा !
(रचनाकाल: 2016)