धूप में एक रविवार / सुन्दरचन्द ठाकुर
धूप मेरी आत्मा में ऊष्मा बनकर उतर रही है
आकाश का नीला मुझे हरा बना रहा है
मैंने आँख मूंदकर पक्षियों की आवाजें सुनीं
गाड़ियों में और जीवन के शोर के ऊपर तिरती महीन
और जाना कि किस तरह वे एक पल को भी ख़त्म न होती थीं
चारों ओर से हम पर बरसता रहता है कितना जीवन
मगर हम ही हैं कभी बुद्धिमान कभी मूर्ख बनकर
ज़िन्दगी गंवाने पर तुले रहते हैं
मैं देर तक सोखता रहा धूप
करवट बदल-बदलकर
काम के हर सोच को मुल्तवी करता
अप्रत्याशित इस समय को भरा माँ ने
अपने बचपन के किस्सों और धूप पर एक लोकगीत से
वह जब दिन का भोजन बनाने चली गई
मैंने उड़ते तोतों को देख अपना बचपन याद किया
इस शहर में कितने लोग धूप का आनंद ले पाते हैं
चालीस की रवां उम्र में तो यह नामुमकिन हो चला है
मगर आज धूप में बेफिक्र लेटा अपनी उपलब्धि पर खुश होता रहा मैं
सोचा मैंने लिखूं इस खुशी पर एक कविता
जिसमें धूप हो, आकाश का नीलापन
रविवार की फुर्सत और तोतों की टवां-टवां
मगर लिख न पाया
धूप मेरे विचारों को सोखती रही
मेरे पास थी पेसोआ की कविताओं की किताब
मैंने पढ़ी एक के बाद एक उसकी कविताएं अनेक
अंततः जब मैं छत से उतर लौटा घर के भीतर
धूप और कविताओं से भर चुका था इस कदर
कुछ भी लिखने-सोचने की चिंता से बेज़ार
मैंने माँ के हाथ का खाना खाया
और कंबल ओढ़कर सो गया।