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धूप लेकर इस शहर में / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
वही गलती हो गयी
हम चले आये धूप लेकर
इस शहर में
यहाँ झरते धुएँ में
सूरज मिले मुँह-ढँके सोये
काँचघर की नुमायश में
दिन खड़े पहचान खोये
राख की मीनार है
उस पर चढ़े सब -हुए बेघर
इस शहर में
कुछ अदद बीमार सपने
और उनकी हैं कराहें
दूर जंगल के सिरे पर
हैं सलोनी सैरगाहें
कड़े पहरे
हैं सुनहरे घाट के छिछले सरोवर
इस शहर में
एक गुंबज
और उसके साथ हैं
अंधी सुरंगें
लोग रहते हैं अकेले
आँख मूँदे और नंगे
हर समय हैं
रोशनी के डूबने के डर
इस शहर में