(1)
धूप सीढ़ी से उतरती,
अरगनी तक रोज,
रुक रुक कर.
भोर होते ही ग़दर मचता,
चाल क़ी, गुलकी अनारों में,
लोग घंटो तक खड़े रहते,
बाल्टी लेकर कतारों में,
देर तक जलधार के नीचे,
पाँव धोती रोज,
झुक झुक कर.
(2)
एक कमरे के घरौंदे में,
खेल हो पाते नहीं हैं अब,
खोल कर सांकल दोपहरी में,
दौड़ आते हैं गली में सब,
रेल बन कर भागते बच्चे,
शोर करते रोज,
छुक छुक कर.
(3)
रात होते ही मरद आकर,
खाट पर बेहाल गिर जाते,
चन्द सूखे कौर खाकर ही,
स्वपन आँखों में उतर आते,
जिस तरह से हादसे होते,
नींद आती रोज,
धुक धुक कर.