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धूप / ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन'

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धूप तो उगल भैया टहटह देसवा में,
पर न इँजोर भेल सगरो जहान में।
बिँधल मुसीबत से जिनगी में जोस कहाँ,
मुरदा बनल सब लोगवा मसान में।
जिनगी के धरती में अंकुर न फूटे कभी,
फूटे नाहीं प्रेम-भाव केकरो बखान में।
धुआँ के पहाड़ दौड़े सगरो अकसवा में,
कोहराम मचल हे सबके परान में।

गम के चट्टान नीचे जिनगी पड़ल काँपे,
सुगबुग करे नाहीं बोले न जुबान में।
चेतना विहीन फूल हँसे न विभोर मन,
फूटल किरन धार कहूँ न बिहान में।
दिन में कराल-काल राकस नियन दौड़े,
राहु बन दौड़े रोज देव के वितान में।
अपना के बलि दे के तड़प रहल वीर,
मोल कहूँ देखे नाहीं प्रान-बलिदान में।

धरती वीरान भेल बगिया उजड़ गेल,
माली कहीं लौके नहीं खेत खलिहान में।
जिनगी बेहाल भैया कँगला बनल हाँफे,
पावे नहीं ठौर कहीं देस के विधान में।
चाल-ढाल रूप-रंग, बिगड़ल देसवा के,
आवे नहीं देस कहूँ आज पहिचान में।
जीभियो न खुले कभी बेबस बेजान लोग,
माँगे अधिकार पर मिले न समान में।
लोभी औ लुटेरा लोग देख कमजोरवा के,
मारे ला झपट्टा दौड़े चील्हवा के चाल में।
बन के उचक्का चक्का जाम करे रोज-रोज,
नोचे औ बकोटे छीने नेजा भोंके भाल में।
नगवा नियन भैया चन्नन के पेड़वा में,
लिपटल सूते रहे फूलवा के जाल में।
धूप के उजास कहूँ लौके नाहीं देसवा में,
घिरल अन्हार इहाँ नेता के कमाल में।