भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धूप : एक गौरइया / स्नेहमयी चौधरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने कहा धूप से--

धूप! ज़रा ठहरो,

मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी,

यहाँ यह ठिठुरन,यह अंधियारा

मुझे तनिक नहीं भाता है।

लेकिन धूप,धूप थी,

भला क्यों रुकती !

मुझे मटमैली साँझ दे चली गई।

मैंने देखा : मेरे ऊपर से

पंख फड़फड़ा गौरइया एक क्षितिज की ओर उड़ी

जाने कहाँ खो गई।