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धूल / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

धूल बनी हूँ, धूल रहूँ मैं, बदले बनूँ विमोहक फूल;
सुरभित कर-कर सरस पवन को मधुप मधु पता सकूँ न भूल।
अथवा नवल दूब-दल बन-बन खोलूँ दृगरंजन का द्वार;
मुक्ता मंजु ओस-बूँदें ले विरचूँ परम मनोहर हार।
सकल-लोक-लोचन जब आवें निज कर प्रात:काल पसार;
तो मैं विपुल पुलक-पूरित हो अर्पण करूँ प्रेम-उपहार।
श्यामल, ललित तृणावलि हो-हो सज्जित करूँ अवनि का अंक;
कर सेवा बहुप्राणिपुंज की हरती रहूँ कपाल-कलंक।
यदि वियोग-विधुर के आँसू तज मंजुल अनमोल कपोल;
बूँद-बूँद मुझ पर निपतित हों भूल-भूल मोती का मोल।
तो मैं उनसे विपुल सरस हो सरसित करूँ अंकगत बेलि;
जिनके कलित ललित किसलय में हो कमनीय कामना-केलि।
ऊँचे उठे भूतभावन के तन की बनूँ पुनीत विभूति;
जिसे विलोक लोक को होवे भव-महानुभवता-अनुभूति।
नीचे रहे लोक-पावन के पद-पंकज का बनूँ पराग;
जिससे विदित जगत को होवे पूजित पग-सेवन-अनुराग।
पद-प्रहार सह पतित कहाऊँ, पर न बनूँ जन-लोचन-शूल;
कंटक-कुल-जननी न कहाऊँ, हो न सकूँ महि के प्रतिकूल।
मैं हूँ तुच्छ, ज्ञान-विरहित हूँ, है न सहजतम सुंदर बोधा;
किंतु सकल जगतीतल-जीवन वांछित है, न अन्य अनुरोधा।