ध्रुपद / अज्ञेय
शं...
शायद कोई आएगा
मैं तो स्तब्ध सपने में
तानपूरा साधता हुआ बैठा हूँ :
गायक आएगा तब आएगा।
आने से पहले साज़ साधना
क्या बहाना नहीं है?
जब वह अभी आया नहीं है,
आएगा तो क्या गाएगा
यह मेरा जाना नहीं है?
पर वह आएगा
यह सोच भी तो मेरे रोम उमगाती है :
यही आस्था मेरी कल्पना जगाती है
मेरी उँगलियों को कँपाती है :
मैं नहीं गाता, गीत मुझ में गाया जाता है,
जिस के साथ मैं नहीं साधता तानपूरा, मेरे हाथों
वह सधाया जाता है।
शं...
एक सन्नाटा। एक गूँज...
ज्वार नहीं आया। अभी नहीं आया; आएगा।
पर तट की हर सीपी ने उस का स्वर गुना है,
हर शंख में उस का स्वर भरा है :
उसी का तार मेरी हर शिरा है,
नहीं मेरे रोम-रोम ने सुना है,
सुना है, सुना है, सुना है..
नयी दिल्ली (मोईनुद्दीन डागर स्मृति समारोह), 13 मई, 1968