भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ध्वनि और कान / जय छांछा
Kavita Kosh से
मेरे चेहरे पर
ख़ुशी के क्षण आ रहे हैं
मेरी आँखों में
इंद्रधनुषी रंगों का झूलना / हर्ष के लहरों का आना
तुम कुछ भी समझो
और कुछ भी नहीं है
कारण तुम ही हो
केवल तुम ही हो ।
अप्रत्याशित ख़ुशी से
स्वत:स्फूर्त नाचने लगे हैं मेरे पाँव
शरीर एकदम से हिलने-डुलने लगा है
ऊपर, और ऊपर उड़ने की चाह / ख़ुशी से हिलना
तुम कुछ भी समझो
और कुछ भी नहीं
कारण तुम ही हो
केवल तुम हो ।
संपूर्णता में तुम
मेरे जीवन की पूर्णाधार हो
क्योंकि
फ़कत ध्वनि हूँ मैं
कान बनकर आओ तुम ।
मूल नेपाली से अनुवाद : अर्जुन निराला