भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नंगे लोग / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
नंगे लोग कहीं भी, किसी वक़्त
नंगे हो सकते है
उनके लिए किसी हमाम की ज़रूरत
नहीं होती
उनकी लुच्चई सार्वजनिक होती है
वे लाख वस्त्र पहने
अपने स्वभाव से निर्वसन होते हैं
वे भाषा को निर्वस्त्र और व्याकरण को
अश्लील बना देते हैं
कोई उन्हें टोके तो वे हमलावर
हो जाते हैं
दिखाने लगते हैं पंजे
वे किसी कबीलाई समाज से
नहीं आते
वे हमारे बीच से निकल कर
दिगम्बर हो जाते हैं
वे साधु या कुसाधु नहीं
वे मठ-मन्दिर में नहीं लोकतन्त्र में
रहते हैं
वे देह से नहीं आचरण से नंगे’
होते हैं
उन की नंगई ढकने के लिये अभी तक
किसी वस्त्र का आविष्कार नहीं हुआ है