Last modified on 1 मार्च 2013, at 16:18

नंग नहीं मुझ को तड़पने से सँभल जाने का / वली 'उज़लत'

नंग नहीं मुझ को तड़पने से सँभल जाने का
डर है उस ख़ंजर-ए-मिज़गाँ के फिसल जाने का

नब्ज़-ए-ज़ंजीर के हिलने से छूटे है आशिक़
बुल-हवस कहवे हुआ शौक़ निकल जाने का

गर-चे वो रश्क-ए-चमन मुझ से है बाग़ी लेकिन
आतिश-ए-गुल से है ख़ौफ़ उस के कुम्हल जाने का

तल्ख़ लगता है उसे शहर की बस्ती का सुवाद
ज़ौक़ है जिस को बयाबाँ के निकल जाने का

जूँ सबा ख़ानक़हों में जो कभू जाता हूँ
क़सद है ग़ुँचा अमामों के कुचल जाने का