नई सभ्यता / शिवनारायण जौहरी 'विमल'
जन अभिरुचि को देख कर
होटल और रेस्टोरेंट का तांता
लग गया शहरों में
पहिले ही दिन से भरने लगीं
सारी टेबिलें कमरे
बन गए पहिचान शहरी सभ्यता के।
सात दिनकी थकान को
पराजित करने के लिए या
कभी मन को बहलाने के लिए
होटलों का सहारा लेने लगे हैं लोग।
देश भर में कई जगह होटलिंग
का प्रशिक्षण देने वाले
संस्थानों में प्रसिक्षुओं को सिखाते है
स्वादिष्ट व्यंजन बनाना टेबिल लगाना
ड्रेस पहनना उपभोग्ता से व्यवहार
सभी जाति के प्रशिक्षु होते हैं
होटलों में नोकरी मिल जाती है उन्हें।
आकर बैठ जाओ किसी कुर्सी पर
बिसलरी की बोतल आकर
बैठ जाएगी तुम्हारी टेबल पर
ताज़ा होने के लिए
पीलिया दो घूँट पानी
यह नहीं पूछा कि जिन हाथों ने
इस पानी की यात्रा शुरू से
इस टेबल तक कराई है वे
किसी चमार, के
अछूत के हाथ तो नहीं थे?
आगया मन चाहा स्वादिष्ठ भोजन
क्षुधा की तृप्ति होने लगी
न वेटर की न कुक की
जात पूछी गई
रेलवे केटरिंग में भी जब खाने का
पेकिट सामने आता है तब
पैकिट लाने वाले से
इस तरह के जातिगत
और छुआ छूत के प्रश्न
कोई क्यों नहीं करता
खाना खा लेते हैं चुपचाप।
बहुमंजिली इमारत के निवासी
बैठते हैं शाम को लान पर
खाते पीते खेलते हैं
बच्चे घुलमिल जाते हैं
जैसे एक ही परिवार के हों
किसी को किसी की
जात में अभिरुचि नहीं।
दो प्रेमी बिना पूंछे जात
या जानकर भी बंध जाते हैं
ज़िन्दगी भर के लिए
कोई हंगामा नहीं होता।
शहर के स्कूल कोलिजों
विश्व विध्यालयों में जातिवाद्
को गेट में घुसने नहीं दिया जाता
जो गाँव शहरों के किनारे पर हैं
या आजाते हैं
म्युनिसिपल के दायरे मे
धीरे धीरे रंग जाते है
शहरी सभ्यता में
इस तरह जातिवाद से मुक्त
शहरी सभ्यता पैर फैलाने लगी है।