नए कवि से / अज्ञेय
आ, तू आ, हाँ, आ,
मेरे पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर,
मिटाता उसे, मुझे मुँह भर-भर गाली देता-
आ, तू आ।
तेरा कहना है ठीक : जिधर मैं चला
नहीं वह पथ था :
मेरा आग्रह भी नहीं रहा मैं चलूँ उसी पर
सदा जिसे पथ कहा गया, जो
इतने-इतने पैरों द्वारा रौंदा जाता रहा कि उस पर
कोई छाप नहीं पहचानी जा सकती थी।
मेरी खोज नहीं थी उस मिट्टी की
जिस को जब चाहूँ मैं रौंदूँ : मेरी आँखें
उलझी थीं उस तेजोमय प्रभा-पुंज से
जिस से झरता कण-कण उस मिट्टी को
कर देता था कभी स्वर्ण तो कभी शस्य,
कभी जीव तो कभी जीव्य,
अनुक्षण नव-नव अंकुर-स्फोटित, नव-रूपायित।
मैं कभी न बन सका करुण, सदा
करुणा के उस अजस्र सोते की ओर दौड़ता रहा जहाँ से
सब कुछ होता जाता था प्रतिपल
आलोकित, रंजित, दीप्त, हिरण्मय
रहस्य-वेष्टित, प्रभा-गर्भ, जीवनमय।
मैं चला, उड़ा, भटका, रेंगा, फिसला,
-(क्या नाम क्रिया के उस की आत्यन्तिक गति को कर सके निरूपित?)-
तू जो भी कह-आक्रोध नहीं मुझ को,
मैं रुका नहीं मुड़ कर पीछे तकने को,
क्यों कि अभी भी मुझे सामने दीख रहा है
वह प्रकाश : अभी भी मरी नहीं है
ज्योति टेरती इन आँखों की।
तू आ, तू देख कि यह पैरों की छाप पड़ी है जहाँ,
कहीं वह है सूना फैलाव रेत का जिस में
कोई प्यासा मर सकता है :
बीहड़ झारखंड है कहीं, कँटीली
जिस की खोहों में कोई बरसों तक चाहे भटक जाय,
कहीं मेड़ है किसी परायी खेती की, मुड़ कर ही
जिस के अगल-बगल से कोई गलियारा पा लेना होगा।
कहीं कुछ नहीं, चिकनी काली रपटन जिस के नीचे
एक कुलबुलाती दलदल है
झाग-भरा मुँह बाये, घात लगाये।
किन्तु प्यास से मरा नहीं मैं, गलियारे भी
चाहे जैसे मुझे मिले : दलदल में भी मैं
डूबा नहीं।
पर आ तू, सभी कहीं, सब चिह्न रौंदता
अपने से आगे जाने वाले के-
आ, तू आ, रखता पैरों पर पैर,
गालियाँ देता, ठोकर मार मिटाता अनगढ़
(और अवांछित रखे गये!)
इन मर्यादा-चिह्नों को
आ, तू आ!
आ तू, दर्पस्फीत जयी!
मेरी तो तुझे पीठ ही दीखेगी-क्या करूँ कि मैं आगे हूँ
और देखता भी आगे की ओर?
पाँवड़े
मैं ने नहीं बिछाये-वे तो तभी, वहीं
बिछ सकते हैं प्रशस्त हो मार्ग जहाँ पर।
आता जा तू, कहता जा जो जी आवे :
मैं चला नहीं था पथ पर,
पर मैं चला इसी से
तुझ को बीहड़ में भी ये पद-चिह्न मिले हैं,
काँटों पर ये एकोन्मुख संकेत लहू के,
बालू की यह लिखत, मिटाने में ही
जिस को फिर से तू लिख देगा।
आ तू, आ, हाँ, आ,
मेरे, पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर,
जयी, युगनेता, पथ-प्रवर्त्तक,
आ तू आ- ओ गतानुगामी!
नयी दिल्ली (वाक् कार्यालय, सुन्दर नगरी), 3 सितम्बर, 1958