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नए खेल / विष्णु खरे
Kavita Kosh से
दूर
खेल से बहिष्कृत बालक सा
असीरगढ़
कनखियों से इस ओर देखता है
इधर
नेपा मिल की चिमनियाँ
किसी दिवालिए, मुद्दतों से तरसे हुए
सिगरेट प्रेमी सी
हिचकिचाती सी, मज़े ले-लेकर
धुआँ उगलती है
समझौतावादी धुआँ
किसी दुनिया देखे बूढ़े-सा
यत्नपूर्वक चलकर
असीर की रुष्ट मीनारों तक पहुँच
उसके प्राचीन, बधिर कर्णविवरों में
मैया का नूतन सन्देसा फुसफुसाता है
किन्तु
असीर और कुढ़ता है
तथा खेल से बहिष्कृत बालक-सा
मुँह फुलाए
(खेलने की इच्छा रखे हुए भी)
’ऊँह’ की मुद्रा बनाए
वक्र खड़ा रहता है।
१९६०