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नख़्ले-उम्मीद में हैरत के समर आ गए हैं / संजय मिश्रा 'शौक'
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नख्ले-उम्मीद में हैरत के समर आ गए हैं
घर जो हम खाना-बदोशों को नज़र आ गए हैं
भूक ने कर दिए हैं मेरी अना के टुकडे
सिर्फ चंदा नहीं तारे भी नज़र आ गए हैं
तू जो बिछड़ा था तो फिर तेज हुई थी धड़कन
फिर मुझे याद तेरे दीद-ए-तर आ गए हैं
फ़ायदा कुछ तो हुआ है तेरी सोहबत का मुझे
सोच के जिस्म में उम्मीद के पर आ गए हैं
मक्तले -जां का नज़ारा है बहुत ही दिलसोज
देखते-देखते आखों में शरर आ गए हैं