भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नगर के नथुनों में पहुंचे प्राण / मालचंद तिवाड़ी
Kavita Kosh से
(अशोक वाजपेयी का काव्य-पाठ सुनने के बाद)
कर्फ्यू था
खुशबू लापता ।
हवा में गश्त थी
समकालीनता की ।
आलोचना के फौजी
ले रहे थे घर-घर तलाशी ।
यशस्वी नहीं था कवि
सौंपने से पहले बयाज
सूंघने पर खुशबू नहीं आई
उस में जनरल साहब को ।
किया कवि पर उपकार
फेंक दी खिड़की से बाहर !
हवा में हिल-मिल गई खुशबू
नगर के नथुनों में पहुंचे प्राण ।
अभी भी चालू है-
समकालीनता ख़ी पेट्रोलिंग तो !
अनुवादः नीरज दइया