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नग़मों की जगह दिल से अब आह निकलती है / 'क़मर' मुरादाबादी

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नग़मों की जगह दिल से अब आह निकलती है,
जब साज़ बदलता है, आवाज़ बदलती है ।

है मेरी मोहब्बत का उन पर भी असर शायद,
बेवजह ख़ामोशी से, इक बात निकलती है ।

ये दिल तो मेरा दिल है, ख़ामोश रहे क्यूँकर,
पत्थर को अगर तोड़ो, आवाज़ निकलती है ।

मैंने तेरी नज़रो को यूँ शौक से देखा है,
इनसे मेरे ख़्वाबों की ताबीर<ref>असर, प्रभाव</ref> निकलती है ।

है ज़ीस्त<ref>्जीवन, ज़िन्दगी</ref> की राहो में इक मोड़ मोहब्बत भी,
होश आता है इंसा को जब राह बदलती है ।

अब किससे यहाँ कीजे, उम्मीद वफ़ाओं की,
जब वक़्त बदलता है हर चीज़ बदलती है ।

फ़ितरत<ref>स्वभाव</ref> के तकाज़ो पर कहता हूँ क़मर गज़लें,
कैफ़ियते-दिल<ref>दिल की हालत</ref> मेरी अशआर में ढलती है ।

शब्दार्थ
<references/>