नग़्मगी नग़्मासरा है और नग़्मों में गुहार / द्विजेन्द्र 'द्विज'
नग़्मगी नग़्मासरा है और नग़्मों में गुहार
तुम जो आओ तो मना लें हम भी ये बरखा बहार
‘पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ’
मन-पपीहा भी यही तो कह रहा तुझ को पुकार
पर्वतों पे रक़्स करते बादलों के कारवाँ
बज उठा है जलतरंग अब है फुहारों पर फुहार
पर्वतों से मिल गले रोये हैं खुल कर आज ये
इन भटकते बादलों का इस तरह निकला ग़ुबार
नद्दियों, नालों की सुन, फिर आज है सरगम बजी
रुह का सहरा भिगो कर जाएगी बरखा बहार
बैठ कर इस पालकी में झूम उठा मेरा भी मन
झूमते ले जा रहे हैं याद के बादल-कहार
झूमती धरती ने ओढ़ा देख लो धानी लिबास
बाद मुद्दत के मिला बिरहन को है सब्रो-क़रार
बारिशों में भीगना इतना भी है आसाँ कहाँ
मुद्दतों तप कर तो धरती ने किया है इन्तज़ार
आसमाँ ! क्या अब तुझे भी लग गया बिरहा का रोग?
भेजता है आँसुओं की जो फुहारें बार-बार
तेरी आँखों से कभी पी थी जो इक बरसात में
मुद्दतें गुज़रीं मगर उतरा नहीं उसका ख़ुमार
वो फुहारों को न क्यों तेज़ाब की बूँदें कहें
उम्र भर है काटनी जिनको सज़ा-ए-इन्तज़ार
भीगना यादों की बारिश में तो नेमत है मगर
तेरी बिरहा की जलन है मेरे सीने पर सवार
इस भरी बरसात ने लूटा है जिसका आशियाँ
वो इसे महशर कहेगा, आप कहियेगा बहार.