नग्न निर्जन हाथ / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास
आकाश का अन्धकार फिर से स्याह हो उठा
फागुन का आकाश और भी
निविड़ हो उठा था अन्धकार में
उसी प्रियतमा की तरह
अनजान रहा मैं जिसकी चाह से आज तक
फागुन का अन्धकार ले आया था
अपने साथ अनेक भूली बिसरी कहानियाँ
ख्यालों में था एक भग्न नगर
और याद आया था
एक जर्जर धूमिल खंडहर सा महल भी
हिन्द महासागर के तीर पर
या भूमध्य सागर के किनारे
या अरब सागर के पहलू में
आज नहीं है, पर था एक दिन –
वो नगर और वो महल भी
छत से फर्श तक
अटा पड़ा था बेशकीमती साज सामानों से
फारसी कालीन, कश्मीरी शाल,
बसरा के मोती और लाल रक्तिम प्रवाल
विलुप्त हृदय, मृत आँखें, विलीन आकांक्षायें,
और तुम
था ये सब कुछ एक दिन
दोपहर की बिखरी धूप में
विचरते कबूतर और मैनायें
महोगनी की सघन छाया से
अटखेलियाँ करती वही नारंगी धूप,
प्रखर नारंगी धूप
और थी तुम
सदियों से जिसे देखा नहीं, ढूँढा भी नहीं
भग्न गुम्बदों, झड़ते मेहराबों
और धूमिल पांडुलिपियों की वेदनामयी यादें
रंग बिरंगी खिड़कियों पर झूलते वो मोरपंखी परदे
कमरे दर कमरों से झांकते वो क्षणिक अहसास,
आयुहीन स्तब्धता और विस्मय
परदों पर इठलाती हुई नारंगी धूप की आभा
मानों रंगीन गिलास में छलक रही हो लाल मदिरा
और तुम्हारा वो नग्न निर्जन हाथ
तुम्हारा नग्न निर्जन हाथ
नग्न निर्जन हाथ