नज़र आसूदा-काम-ए-रौशनी है 
मिरे आगे सराब-ए-आगही है 
ज़मानों को मिला है सोज़-ए-इज़हार 
वो साअत जब ख़मोशी बोल उठी है 
हंसी सी इक लब-ए-ज़ौक़-ए-नज़र पर 
शफ़क़-ज़ार-ए-तहय्युर बन गई है 
ज़माने सब्ज़ ओ सुर्ख़ ओ ज़र्द गुज़रे 
ज़मीं लेकिन वही ख़ाकिस्तरी है 
पिघलता जा रहा है सारा मंज़र 
नज़र तहलील होती जा रही है 
धुन्दलकों को अन्धेरे चाट लेंगे 
कि आगे अहद-ए-मर्ग-ए-रौशनी है 
बिखरते कारवाँ ये इर्तिक़ा के 
सरासीमा सा ज़ौक़-ए-ज़िन्दगी है 
मैं देखूँ तो दिखा दूँगा तुम्हें 'साज़' 
अभी मुझ में बसीरत की कमी है