नज़र न लग जाये / बालस्वरूप राही
नज़र न लग जाये चकोर की इसलिए
लगा दिया काजल का टीका रात ने
चंदा के चांदी-से गोरे गाल पर।
वातावरण तपस्वी जन सा मौन है
उसको क्या मालूम सामने कौन है
शीश धरे जुमना की शीतल धार पर
सरल हृदय बालक-सा सोया पौन है।
दो प्रेमी बैठे हैं सटे कगार पर
तैर रहा प्रतिबिम्ब दूधिया धार पर
आस पास तंद्रिल नीरवता ऊंघती
कोई पहरेदार नहीं है द्वार पर।
पर न तृप्ति है प्यार, प्यास है इसलिए
टाल रहा है रूप समर्पण की घड़ी
शरमाये मुखड़े पर आँचल डाल कर।
घृणा अतृप्त प्यार का ही इतिहास है
पतझर क्या है सन्यासी मधुमास है
रात भूमिका किसी सुनहरी भोर की
शंका केवल दिशा भ्रमित विश्वास है।
कोई बुरा नहीं है मौलिक रूप में
नया जन्म लेता सौन्दर्य कुरूप में
दोनों का ही नाता है आलोक से
कोई अंतर नहीं छाँह में, धूप में।
इसिलिए निर्मल सागर से रूठ कर
धर कर चरण पंक के मैले अंक में
झूम रहा पंकज पुलकित-मन ताल पर।
गीत किसी खिलते गुलाब की पाँखुरी
गीत किसी मोहन की मोहक बांसुरी
गीत किसी मंदिर का पावन दीप है
जिसके आगे विनत अंधेरा आसुरी।
गीत व्याप्त है हर कोमल सम्बन्ध में
गीत महकता है हर मादक गंध में।
कह सकता है कौन कि पहली बार ही
वाणी मुखरित नहीं हुई थी छंद में?
कोई मनमौजी विहंग है गीत जो
युग विशेष के बंधन से उन्मुक्त हो
पंख पसार उड़ा करता हर काल पर