भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नज़र फ़रेब-ए-कज़ा खा गई तो क्या होगा / अहसान बिन 'दानिश'
Kavita Kosh से
नज़र फ़रेब-ए-कज़ा खा गई तो क्या होगा
हयात मौत से टकरा गई तो क्या होगा
नई सहर के बहुत लोग मुंतज़िर हैं मगर
नई सहर भी कजला गई तो क्या होगा
न रहनुमाओं की मजलिस में ले चलो मुझको
मैं बे-अदब हूँ हँसी आ गई तो क्या होगा
ग़म-ए-हयात से बेशक़ है ख़ुदकुशी आसाँ
मगर जो मौत भी शर्मा गई तो क्या होगा
शबाब-ए-लाला-ओ-गुल को पुकारनेवालों
ख़िज़ाँ-सिरिश्त बहार आ गई तो क्या होगा
ये फ़िक्र कर कि इस आसूदगी के धोके में
तेरी ख़ुदी को भी मौत आ गई तो क्या होगा
ख़ुशी छीनी है तो ग़म का भी ऐतमाद न कर
जो रूह ग़म से भी उकता गई तो क्या होगा