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नज़र मिली बज़्म-ए-शौक़ जागी, पयाम अन्दर पयाम निकला / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

नज़र मिली, बज़्म-ए-शौक़ जागी, पयाम अन्दर पयाम निकला
मगर वो इक लम्हा-ए-गुरेज़ां, न सुब्ह आया, न शाम निकला

"बड़े तकल्लुफ़ से आया साग़र, बड़े तजम्मुल से जाम निकला"
हमारा जौक़-ए-मय-ए-वफ़ा ही रह-ए-मुहब्बत में ख़ाम निकला

वफ़ा है क्या, दोस्ती कहाँ की,हमारी तक़दीर है तो ये है
किया जो साये पे अपने तकिया तो वो भी मेह्शर-ख़िराम निकला

मैं आब्ला-पा, दरीदा-दामां खड़ा था सेहरा-ए- जूस्तजू में
मगर दलील-ए-सफ़र ये मेरा खु़द-आगही का क़ियाम निकला

न आह-ए-लर्ज़ां, न अश्क-ए-हिरमां, बदन-दरीदा, न सर-ख़मीदा
तिरी गली से ज़रूर गुज़रा, मगर ब-सद-इहतराम निकला

इक एक हर्फ़-ए-उमीद-ओ-हसरत ग़ज़ल की सूरत में ढल गया है
मिरा सलीक़ा दम-ए-जुदाई खिलाफ़-ए-दस्तूर-ए-आम निकला

कभी यकीं पर गुमां का धोखा, कभी गुमां पर यकीं की तुहमत
हमें खुश आयी ये सादा-लौही, हमारा हर तरह काम निकला

हज़ार सोचा, हज़ार समझा, मगर ज़रा कुछ न काम आया
क़दम क़दम मंज़िल-ए-ख़िरद में, मिरा जुनूं से ही काम निकला

गुमां ये था बज़्म-ए-बेख़ुदी में, बहक न जाये कहीं तू "सरवर"
मगर तिरा नश्शा-ए-ख़ुदी तो हरीफ़-ए-मीना-ओ-जाम निकला