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नज़्रे-अकबर इलाहाबादी / कांतिमोहन 'सोज़'

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(नज़्रे-अकबर इलाहाबादी)

'हम ऐसी सब किताबें क़ाबिले-ज़ब्ती समझते हैं।'
कि जिनको पढ़के वालिद वल्द को ख़ब्ती समझते हैं।।

इलाही कुछ इन्हें ज़ेरो-जबर<ref>ऊँच-नीच</ref> सिखला ये ज़रवाले
हमारी ज़ेरदस्ती<ref>मजबूरी</ref> को जबरदस्ती समझते हैं।

चल ए दिल अब यहां से भी उजड़ना है तेरा लाज़िम
कि शाहे-वक़्त तेरे दश्त<ref>वीराना</ref> को बस्ती समझते हैं।

सितारों को कोई समझाए हम धरती के बाशिन्दे
तुम्हारी मस्तियों को सिर्फ़ ख़रमस्ती<ref>गदहे का लोट</ref> समझते हैं।

अगर्चे इसमें रोटी-दाल की चिन्ता नहीं रहती
तू बच उनसे ग़ुलामी को जो खुशबख़्ती<ref>खुशक़िस्मती</ref> समझते हैं।

यही एक बात मुश्तर्का<ref>साझा</ref> है अहले-ज़र से यारों की
कि हम अहले-जिनूं<ref>जनूनी लोग</ref> भी सांप को रस्सी समझते हैं।

वो ग़ाफ़िल थे तो दुश्मन घुस गया मरवा दिया हमको
हमारी जान ज़ालिम किस क़दर सस्ती समझते हैं।।

2017

शब्दार्थ
<references/>