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नज़्रे-ग़ालिब / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
Kavita Kosh से
किसी गुमां पे तवक़्क़ो ज़ियादा रखते हैं
फिर आज कू-ए-बुतां का इरादा रखते हैं
बहार आयेगी जब आयेगी, यह शर्त नहीं
कि तश्नाकाम रहें गर्चा बादा रखते हैं
तेरी नज़र का गिला क्या जो है गिला दिल को
तो हमसे है तमन्ना ज़ियादा रखते हैं
नहीं शराब से रंगी तो ग़र्क़े-ख़ूं हैं के हम
ख़याले-वज़ाए-क़सीमो-लबादा रखते हैं
ग़मे-जहां हो, ग़मे-यार हो कि तीरे-सितम
जो आये, आये कि हम दिल कुशादा रखते हैं
जवाबे-वाइज़े-चाबुक-ज़बां में फ़ैज़ हमें
यही बहुत है जो दो हर्फ़े-सादा रखते हैं