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नदीनां कल्याणी / सुरेश सलिल
Kavita Kosh से
हरी घाटी में सर्पिल पथ बनाती; बहती
एक नदी का नाम है कल्याणी।
शंखपुष्पी के उजले नन्हें फूलों से लदे-फंदे
सात्विक मनोरम हैं उसके तट।
इधर-उधर छिदरे-बिखरे रम्भाते पशु
और दूर कहीँ; किसी पेड़ की छाया तले यूथबद्ध चरवाहे
जैसे कि यमुनाकूले वंशीवट।
रजतवर्णी खड्गफलक-सी चमकती-बिछलती
एक नदी का नाम है कल्याणी,
अपने को आकंठ भिगोता हूँ मैं उसमें,
दिन में एक बार-दोबार नहीं;
कई-कई बार...
कई-कई बार दफ़न करता हू~म मैम
कल्याणी की गहराइयों में
अपने इस बेमाने शहर की काली मीनार
और सोचता हूँ-
कल्याणी महज एक नदी नहीं है,
वह मेरा देश है, मेरा विवेक है,
मेरा अधूरा सपना, मेरी सम्पूर्ण ऋचा,
मेरी माँ है कल्याणी...
कल्याणी में मैं हूँ और मुझमें है कल्याणी!