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नदी, धूप, सहरा, हवा पढ़ रहा हूँ / संजय सिंह 'मस्त'
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नदी, धूप, सहरा, हवा पढ़ रहा हूँ,
जहाँ तुम मकीं हो पता पढ़ रहा हूँ।
तेरे ज़ह्न के बंद ताले खुलेंगे,
सदाओं की मैं इन्तिहा पढ़ रहा हूँ।
जो दुन्या ही आमादा-ए-मौत हो तो,
मैं किस वास्ते ये दोआ पढ़ रहा हूँ।
तुम अपना मुक़द्दर बनाने की सोचो,
मैं मशगूल, अपनी ख़ता पढ़ रहा हूँ।
हैं कुछ एक ज्वालामुखी जागने को,
ज़मीं से मिली क्यों, रज़ा पढ़ रहा हूँ।
ये फूलों में बारूद क्यों भर रहा है।
ये आदम है या सिरफिरा पढ़ रहा हूँ।
जो पारा अचानक चढ़ा जा रहा है,
घटे कैसे उसकी वजा पढ़ रहा हूँ।
अगरचे नहीं फ़र्क पड़ना है कुछ भी,
मैं क्या लिख रहा हूँ, मैं क्या पढ़ रहा हूँ!