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नदी का सुख / पुष्पिता
Kavita Kosh से
नदी के पास
अपना दर्पण है
जिसमें नदी देखती है ख़ुद को
आकाश के साथ।
नदी के पास
अपनी भाषा है
प्रवाह में ही उसका उच्चार।
नदी
बहती और बोलती है
छूती और पकड़ती है
दिखती और छुप जाती है
कभी शिलाओं बीच
कभी अंतःसलिला बन।
नदी के पास
यादें हैं
ऋतुओं के गंधमयी नृत्य की
नदी के पास
स्मृतियाँ हैं
सूर्य के तपे हुए स्वर्णिम ताप की
हवाओं के किस्से हैं
परी लोक की कथाओं के।
नदी के पास
तड़पती चपलता है
जिसे मछलियाँ जानती हैं।
नदी के पास
सितारों के आँसू हैं
रात का गीला दुःख है
बच्चों की हँसी की सुगंध है
नाव-सी आकांक्षाएँ हैं
बच्चों का उत्साह है।
अकेले में
नदी तट पर बैठती हूँ
अपनी आँखों के तट पर
बैठे हुए
तुम्हारी हथेली से
आँसू पोंछती हूँ।