नदी की सुनो / छवि निगम
कितने ही हुए विमर्श, अटकलें इतनी सारी
पर नदी का अपना रंग रूप तो रहा अबूझा ही
क्या होगी चाह अपनी उसकी...
चाहोगे तुम बूझना?
जाओ टाँग आओ अपना तन दरवेश कहीं किसी झाड़ पर
फिर लौटो
बिना उलीचे तट
बिना उसकी लहरों को कुचले तनिक भी
उतर आओ, गहरे भीतर
मन को बुद्ध कर लो
लेट जाओ तलहटी में गर्भस्थ शिशु से
उसकी सतह का आकाश देखो
जाने कितनी नदियाँ बहा करती हैं अन्तस में उसके
उसके हैं अपने मन के पहाड़ कछार घाटियाँ रेगिस्तान
भटकन के तुम नये आयाम तो गढ़ो
देह की परिभाषा स्थूल ही बनी रहेगी कब तक?
तरलता के उठान कटाव में भी कहीं जरूर दिखेगी आँच
तो इस बार उसमें जल जाओ।
अपनी राख से भरो उड़ान फीनिक्स पक्षी बन
आंको तो उसके आतुर मनोभाव
करो महसूस किनारों में बंधी उसकी कसमसाहट
जब चीरती हो नाव कोई जिगर उसका
पियो बूँद बूँद उसकी व्याकुल सी छटपटाहट...
नदी की सुनो।
नहीं चाहिए उसे रोज़ छलिया सूरज का चुम्बन
जबरन सुनहरा होने से पहले
रक्त छलछला आता है नदी का, तो लाल दिखा करती है
उधार की चाँदनी का रंग भी नहीं
पेड़ों से टप टप चूता हरा रंग भी कहाँ उसका अपना
बीहड़ पठारों का मटमैला रंग भी नहीं
करना चाहती है वापस करना नीलापन आसमान को
अहसानों तले पिसती उसकी रातें स्याह हो जाया करती हैं...
रंगहीन होना ही रंग हो उसका अपना तो?
और बोझ रंगों का उस पर मत डालो
नदी को गुनो।
कल कल छल छल तो शायद तुम सुनते हो
पर नाद कोई तो अपना उसका होगा
सुनो खौलते लावे की बुद बुद उसके अंतर में
आज गूँजता मौन सुनो।
थक चुकी है वो सभ्यताओं को जन्म देते देते
दम्भी खारे सागर में खुद को खोते खोते
रोज नये भंवर रचते
उसमे अपने उद्दाम ज्वार भाटे खुद डुबोते
ऊब चुकी है अपने ऊपर रचे ग्रन्थ सुनते
एक दिन, देखना
उतार फेंकेगी दमघोंटू महानता का चोला
ले करवट, यकायक उठ बैठेगी
खुद चुनेगी।
नही चाहेगी, तो नहीं चुनेगी
अपने ऊपर होते सभी विमर्शों, अटकलों को मूक कर देगी
तुम सुनना जरूर तब...
नदी बोलेगी।