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नदी / श्रीप्रसाद
Kavita Kosh से
नदी गीत गाती, लहरियाँ उठाती
उमड़ती चली जा रही
बड़ी दूर से यह चली पर्वतों से
बड़े जोश में आ रही
मिली एक चट्टान, धक्का दिया झट
गई टूट चट्टान तब
मसलकर किया चूर, उसको मिटाया
दिखाई बड़ी शान तब
बनाए हरे खेत; धरती सजीली
न बाधा कहीं मानती
किये काम अच्छे, चलाचल-चलाचल
न रुकना कहीं जानती
कहीं धार चौड़ी, कहीं धार पतली
कहीं धार को मोड़ती
कहीं धार उथली, कहीं धार गहरी
नगर, गाँव, सब जोड़ती
नदी बह रही है यहाँ किस समय से
इसे कौन है जानता
नदी बह रही है हमारी, यही
बात हर एक पहचानता
नदी इस तरह ही बहेगी हमेशा
लहरियाँ उठाती हुई
यही धार होगी, किनारे यही
गीत ये गुनगुनाती हुई
नदी पर बना पुल, वहीं बैठकर
धार हम देखते रोज आ
बड़ी मौज से नाचती है नदी
और चलती नदी गीत गा।