ननिहाल / रूपम मिश्र
ननिहाल शब्द मेरी स्मृति में
हमेशा
दशहरे के मेले की जलेबियों की
महक जैसा रहा !
मैं हमेशा टिकोरे के बीज को ऐसे चिटकती
कि वो फ़िसल कर ननिहाल की दिशा में गिरता
और गर्व से कहती मेरे टिकोरे की बिज्जी
हमेशा मेरे ननिहाल की ओर गिरती है
छुटपन में झरबेरी तोड़ने के लिए
सबकी नज़र बचाकर
खेत के उस पार सरपत वाली मेड़ तक जाना
पैर में धँस जाते नन्हें-नन्हें नाज़ुक से काँटे
वहीं बैठकर अपना पैर अपनी ही गोद में रखकर
शीऽऽऽ ! शीऽऽऽ ! करते हुए काँटा निकलने की व्यर्थ कोशिश
वहीं खेतों में हल जोतते जोखन काका दौड़कर आते
मेरा मिट्टी में सना पैर अपने कठोर और काले पवित्र हाथ में ले लेते
कहते — बिटिया ननिहाल की ओर देखो !
मैं रोते हुए कहती — ननिहाल किधर है दादा !
दादा कहते दख्खिन तरफ़ और कहाँ
उधर से ही तो बेटियाँ ब्याहकर उत्तर आती हैं
मैं और रोते हुए कहती —
दख्खिन किधर है दादा ?
दादा खीजकर कहते — अभी उठाकर तुम्हें नदी में फेंकता हूँ
तो दख्खिन और ननिहाल दोनों दिख जाएँगे
फिर बहुत दिन तक याद रखती ननिहाल की दिशा
उधर से उड़कर आती चिड़िया को ध्यान से देखती
कहीं बात करते हुए लोग ननिहाल के परगने का नाम लेते
तो ठहर कर वो बातें सुनती
बड़े होने पर जिसने बताया —
तुम्हारे ननिहाल के तरफ का हूँ
एक अनजाना सा अपनापा उसके लिए आ जाता
किसी कॉमिक्स में पढ़ी हुई कहानी सुनाने का उतावलापन
अपराध जैसा लगा
और दाँत से जीभ काट ली
कि दिन में कहानी सुनाने से
मामा रास्ता भूल जाते हैं
मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ
मरने से बचाए रखना ननिहाल के लोगों का मन
नहीं तो ख़त्म हो जाएगा एक दिन
ये दुलार और स्नेह से सना शब्द
क्योंकि ठूँठ होता है वो ननिहाल
जिसकी स्मृतियाँ बच्चों के लिए सुखद नहीं होतीं ।