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नबागतपाड़े में पुनरागमन / तोताबाला ठाकुर / अम्बर रंजना पाण्डेय

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श्राद्धपक्ष की एक तिथि लौटी थी नबागतपाड़ा
ढह गया था गृह रासबाबू की बोईबाड़ी
बाड़ी से लगा तमालबन घनघोर तिमिर और
नागों-वृश्चिकों से भर गया था

जहाँ सती माँ नवबधू बनकर आई थी आलते भरे
चरन रखते, जहाँ उनके भाल के तिलक से पूरी
बोईबाड़ी में ऊजेर होता था
जहाँ इस नवबधू ने अनन्य रीतियों से रासबाबू को
ग्रहण किया था, जहाँ आकाशगँगा में तारकों की धूल से
अधिक नखक्षत थे माँ की पीठ पर
जहाँ केवल मरन के नेत्रों से गिरता जल ही था
स्त्री और स्वामी का प्रेम, जहाँ जीवन रहते अनुराग
सिद्ध करने की कोई युक्ति नहीं थी
केवल शव से ही प्रेमनिवेदन सम्भव था

उसी गृह में एक दिन आ गए आगन्तुक पण्डित
नष्ट कर लिया नीड़ छिन्न-भिन्न हो गया रासबाबू के प्रति
सतीमाँ का प्रेम, कोई स्त्री जिसके गृह सेंदूर, अक्षत,
घृत, चन्दन के भण्डार भरे हों,
जिसका स्वामी रोज रात्रि सुनाता हो उसे
विद्यापति के पद और जिसका चुम्बन
दूध में पड़ी मिश्री जितना कोमल पड़ गया हो घनिष्ठया के
कारण, वह परपुरुष पर क्यों नष्ट कर देगी अपना गृह

कोई नहीं जानता कोई नहीं जानता
प्रेम जो हमें नष्ट करने आता है
उसकी प्रतीक्षा में हम स्वयं को कितना नष्ट कर लेते है
कि प्रेम में नष्ट हो जाने के लिए हम आत्महत्या नहीं करते ।