भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नभ पर एक सुनहली रेखा खींचो / कृष्ण मुरारी पहरिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नभ पर एक सुनहली रेखा खींचो

उसके पार बसे सपनों को
अपनी बाँहों मे भींचो

कल का कल्पित आज सत्य हो जाए
मन का सारा अन्धकार खो जाए
युग युग संचित कलुष प्रभा धो जाए
अपना उपवन अपने श्रम से सींचो

सोंच रहे क्या मन की आँखें खोलो

कब तक बैठोगे यों ही अनबोले
सबने तो अपने अपने बल तोले
तुम भी इन आँखों से देखो न मींचो