एक कबूतर का जोड़ा
भरी भीड़ में अकेला हो कर
चुपचाप चोंच में चोंच डाल कर
गहरी आवाज़ में बेआवाज हो कर
लेटा हुआ है
बस बीच बीच में
मादा कबूतर अपने गहरे काले
पंखों से ढक लेती है
अपने साथी को
और जब उठती है तो
उसके पंखों के रेशे
यहाँ-वहाँ बिखरे रह जाते हैं
फिर कभी दोनों
तिनका, घास, फूस, सींक
इकठ्ठा करते हैं
घर बनाते हैं
और लड़ पड़ते हैं अचानक
बिखरा कर सारे घर का सामान
उलझ जाते हैं किसी लंबी बहस में
फिर चुनते हैं उसी बहस के तिनके
उन्हें मालूम है
सुंदर घर
सार्थक बहस से ही बनेगा
कौन जाने दोनों में से मनाता है कौन किसे।
फिर कर के सारे काम मुल्तवी
देखती हूँ कि
तिनका-तिनका कर के घर बुनते हैं
कभी दिल, कभी दिमाग और कभी सपने
उसी घर में चुनते रहते हैं
यही कबूतर का जोड़ा
रमजान के पवित्र महीने में
मेरे घर की मुडेर पर आ के बैठा था
देखा मैंने कि
नर कबूतर
दिन के पांचो नमाज़ की तरह
अपने साथी
के सिजदे में झुका था
और मादा कबूतर
दुवाओं की तरह
उसे अपने सीने में भरती जा रही थी
दोनों की आँखों से
वज़ू के पवित्र पानी की तरह
बार बार कई बा
र
आँसू झरते जा रहे थे
और बहती जा रही थी उसमें
उनकी दूरी, द्वंद्व, अविश्वास और अकेलापन
मुझे मालूम है यह कबूतर का जोड़ा
लड़ेगा, जूझेगा, जियेगा और सलामत रहेगा।