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नया इंसान / महेन्द्र भटनागर

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आज नया इंसान, पड़ी चरणों की, तोड़ रहा ज़ंजीर !

उबल उठा है स्वस्थ युगों की ताक़त का उन्माद,

जन-जन के बंदी जीवन को करने को आज़ाद,

उजड़े ध्वस्त घरों को फिर से करना है आबाद,

आगे बढ़ना है सदियों का छाया सघन अंधेरा चीर !

हिलते महलों की दीवारों से आती आवाज़,

भय से ग्रस्त कि मानों हो ही गिरने वाली गाज,

मिटनेवाला है अब जग का शोषक-जीर्ण-समाज,

निश्चय, अब रह न सकेंगे दुनिया में आदमख़ोर

अमीर !

जन-बल के क़दमों की आहट से गूँजा संसार,

दुर्बल बन दुश्मन का वक्ष दहलता है हर बार,

खुलते जाते अवरुद्ध-पंथ के लो सारे द्वार,

अब धार नहीं बाक़ी, खा ज़ंग गयी

सामंती-शमशीर !

सत्य प्रखर अब सम्मुख आया, जीत गया विश्वास,

वांछित नवयुग पास कि लुप्त हुआ पिछला आभास,

अब रखनी न सुरक्षित मन में कोई खोयी आस,

दुनिया के परदे पर, हर मानव की आज नयी तसवीर !

आज नया इंसान, पड़ी चरणों की, तोड़ रहा ज़ंजीर !

1950