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नया कुछ नहीं कह रहा / लोकमित्र गौतम

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मुझे पता है मै नया कुछ नहीं कह रहा
फिर भी मै कहूँगा
क्योंकि
सच हमेशा तर्क से नत्थी नहीं होता
छूटे किस्सों और गैर जरुरी संदर्भों से भी
ढूंढ़कर निकालना पड़ता है
तो कई बार उसे
तर्कों की तह से भी कोशिश करके निकालना पड़ता है
मुस्कुराहट में छिपे हादशों की तरह
जब चकमा देकर पेज तीन के किस्से
घेर लेते हैं अख़बारों के पहले पेज
तो आम सरोकारों की सुर्ख़ियों को
गुरिल्ला जंग लड़नी ही पड़ती है
फिर से पहले पेज में जगह पाने के लिए
मुझे पता है तुम्हे देखकर
सांसों को जो रिद्दम और आँखों को जो सुकून मिलता है
उसका सुहावने मौसम या संसदीय लोकतंत्र की निरंतरता से
कोई ताल्लुक नहीं
फिर भी मै कहूँगा
संसदीय बहसों की निरर्थकता
तुम्हारी गर्दन के नमकीन एहसास को
कसैला बना देती है
जानता हूँ
मुझे बोलने का यह मौका
अपनी कहानी सुनाने के लिए नहीं दिया गया
फिर भी मौका मिला है तो मै दोहराऊंगा
वरना समझदारी की नैतिक उपकथाएं
हमारी सीधी सादी रोमांचविहीन प्रेमकथा का
जनाजा निकाल देंगी
और घोषणा कर दी जाएगी की यह प्रेमकथा
अटूट मगर अद्रश्य
हिग्स बोसान कणों की कथा है
इसलिए दोहराए जाने के आरोपों के बावजूद
मै अपना इकबालनामा पेश करूँगा
क्योंकि इज्ज़त बचाने में
इतिहास के पर्दे की भी एक सीमा है .
इसलिए मेरा मानना है की
मूर्ख साबित होने की परवाह किये बिना
योद्धाओं को युद्ध का लालच करना चाहिए
मुझे पता है
मै नया कुछ नहीं कह रहा
फिर भी मै कहूंगा
ताकि इंतजार की बेसब्री और खुश होने की
मासूमियत बची रहे
ताकि कहने की परंपरा और सुने जाने की
सम्भावना बची रहे
ताकि देखने की उत्सुकता और दिखने की लालसा बची रहे
असहमति चाहे जितनी हो मगर मै नहीं चाहूँगा
बहस की मेज़ की बायीं ओर रखे पीकदान में आँख बचाकर
साथ सा थ निपटा दिए जाएँ
गाँधी और मार्क्स!