नया विश्वास / महेन्द्र भटनागर
बर्फ़ की इन आँधियों में
आश की चिनगारियाँ कब तक जलेंगी ?
चिनगारियाँ:
जिन पर रहीं बिछ
राख की परतें जलीं !
रे और कब तक
उर-सुलगती ज्वाल जीवन की रहेगी ?
काँपतीं रवि-रश्मियाँ नभ से चलीं,
अति शीत लहरों से
रही घिर रात जीवन की घनी !
रात -
जो बढ़ती गयी प्रतिपल
सती उस द्रौपदी के चीर-सी;
बात ठंडी है सभी
हिम-नीर-सी !
विश्वास -
पीले पत्र-सा
रे झुक गया है हार कर,
अब और कब-तक व्योम की छत
प्राण की रक्षा करेगी ?
ओट आँचल की कहाँ तक
मत्त तूफ़ानी घड़ी में
दीप अन्तर का बचाये रह सकेगी ?
बुझ न जाये;
क्योंकि बाक़ी है
अभी तो स्नेह,
क्या वह स्नेह
यों ही व्यर्थ जाएगा ?
नहीं !
अविरल जलेगा वह
प्रलय तक
और अंतिम बूँद तक,
हर श्वास तक,
जग उलझनों में !
दीप जीवन का प्रखर
हर क्षण
रखेगा ज्योति में डूबा हुआ !
चिनगारियाँ हैं:
बर्फ़ से — हिम नीर से
ये बुझ न पाएंगी कभी,
आँधियों से तो
जलेंगी और ऊँची बन
गगन में तीव्र लपटों-सी !
न सोचो —
दीप यह यों ही बुझेगा,
न सोचो —
थक गया है
ज्वार सागर का उमड़ता;
देख लेना
कल उठेगा बाँधने को व्योम को फिर !
क्योंकि
मेरी बाहुओं में
शक्ति बनती और बढ़ती जा रही है,
क्योंकि
अंतर-बल सतत
आती हुई हर साँस पर बेचैन है !
रह-रह
नया विश्वास जीवन में
उभरता जा रहा है !
बर्फ़ की इन आँधियों में
आदमी
बेख़ौफ़ सरगम गा रहा है !