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नया साल / राकेश भारतीय
Kavita Kosh से
बस आखिरी ही रात है
दीवार पर इस कैलेंडर की
पर आखिरी बार नहीं
रोया है कोई बेरोजगार
साल बदलने के साथ उम्र
बोझ बन जाने की संभावना पर
आखिरी बार नहीं कोई कमसिन
मुफलिसी में लगा रही है हिसाब
बेहतर होगा अकेले छीजते रहना
या किसी मालदार बूढ़े की लार
हाार हाार बार सहते चलना
और भी बहुत अप्रिय बातों का
सिलसिला टूटने की उम्मीद के
साल भर बाद टूटने के साथ
फिर वही मांर है सामने
नाच रहे हैं इन्सानी मुखौटों में
तमाम तरह के स्खलनकामी कीड़े
इन्सानियत की ढहती दीवारों में
नये साल में नये तरीके से
सेंध लगाने की उम्मीद में
पर टेरने में लगा है कवि
उगते हुए सूर्य के साथ सुबह
उगायेंगे हम उम्मीदों का नया साल