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नयी रेखाएँ / महेन्द्र भटनागर

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इन धुँधली-धुँधली रेखाओं

पर, फिर से चित्र बनाओ मत !

दुनिया पहले से बदल गयी,

आभा फैली है नयी-नयी,

यह रूप पुराना, नहीं-नहीं !

आँखों से ओझल है कल की

संस्कृति की गंगा का पानी,

टूटी-टूटी-सी लगती है

गत वैभव की शेष कहानी,

जिसमें मन से झूठी, कल्पित

बातों को सोच मिलाओ मत !

पहले के बादल बरस चुके,

अब तो खाली सब थके-रुके,

यह गरज बरसने वाली कब ?

नव-अंकुर फूट रहे रज से

भर कर जीवन की हरियाली,

निश्चय है, फूटेगी नभ से

जनयुग के जीवन की लाली,

निस्सार, मिटा, जर्जर, खोया

फिर से आज अतीत बुलाओ मत !

1948