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नये इंसानों से / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
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पहले
सोचते हैं हम
अपने घर-परिवार के लिए।

फिर —
अपने धर्म
अपनी जाति
अपने प्रांत
अपनी भाषा, और
अपनी लिपि के लिए !

आस्थाएँ: संकुचित।
निष्ठाएँ: सीमित परिधि में कै़द।

हम अपने इस सोच की
रक्षा के लिए
मानव-रक्त की
नदियाँ बहा देते हैं,
पड़ोसियों को
गोलियों से भून देते हैं,
वहशी बन जाते हैं
आदमख़ोर हिंस्र
जानवर से भी अधिक,
भयानक शक़्ल
धारण कर लेते हैं !
हमारे ‘महान’ और ‘शहीद’ बनने का
एक मात्रा रास्ता यही है !

पीढ़ी-दर-पीढ़ी
यह सोच
हमारी चेतना का
अंग बन चुका है,
हम इससे मुक्त नहीं हो पाते !

बार-बार हमारा ईश्वर
हमें उकसाता है —
हम दूसरों के ईश्वरों की
हत्या कर दें
उनके अस्तित्व चिन्ह तोड़ दें
और स्वर्ग का स्थान
केवल अपने लिए
सुरक्षित समझें।

साक्षी है इतिहास
कि देश हमें नहीं दिखता,
विश्व-मानवता का लिबास
हमें नहीं फबता।

इस पृथ्वी पर मात्रा
हम रहेंगे —
हमारे धर्म वाले
हमारी जाति वाले
हमारे प्रांत वाले
हमारी ज़बान वाले
हमारी लिपि वाले,
यही हमारा देश है,
यही हमारा विश्व है !

कौन तोड़ेगा
इस पहचान को ?
ख़ाक करेगा
इस गलीज़ जहान को ?
नये इंसानो !
आओ, क़रीब आओ
और मानवता की ख़ातिर
धर्म-विहीन, जाति-विहीन
समाज का निर्माण करो
देशों की
भौगोलिक रेखाएँ मिटा कर !
विभिन्न भाषाओं
विभिन्न लिपियों को
मानव-विवेक की
उपलब्धि समझो !
नये इंसानो !
अब चुप मत रहो
तटस्थ मत रहो !