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नये वक्त की महाकथा यह / कुमार रवींद्र
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नये वक़्त की महाकथा यह
सुनो, साधुओ !
नये वक़्त की महाकथा यह
अद्भुत-न्यारी
एक पुराना सिंहासन है
रखा बीच-चौराहे उलटा
जिस-किस की हो जाती जब-तब
राज्यलक्ष्मी अबकी कुलटा
लिल्ली घोडी एक
उसी पर चढते हैं सब
बारी-बारी
टूटे दरवाजे के पीछे
सहमा खडा एक बच्चा है
पक्की हैं मीनारें सारी
आँगन हर घर का कच्चा है
शहर कोई हो
रोज सुबह फरमान शाह का
होता जारी
बमभोले की नगरी में भी
ठग रहते हैं दुनिया-भर के
अप्सराओं की टोली आई
दिये बुझे सब पूजाघर के
सागर ने
लाँघी मर्यादा
गंगाजल भी अब है खारी।