नरक का द्वार / प्रतिभा सक्सेना
आदम ने हौव्वा से कहा, 'सबकी जड़ तुम हो!
अच्छे ख़ासे रह रहे थे जन्नत के बग़ीचे में द्विधाहीन,
कि करना है 'वह' करेगा,
निश्चिन्त कि कोई ज़िम्मेदारी नहीं,
बड़े चैन से थे!
तुम्हीं ने भरमाया, बहकाया फैलाई अपनी माया,
बर्जित फल चखने को उकसाया!
सोच-समझ को झकझोर जगाया और
सारा सुख सारा चैन हिरन हो गया!
जैसे थे, ठीक थे!
परम संतोष से भरे!
अब खो गया सारा चैन!
अरे दुख का मूल है तू औरत!
कठिनाई पड़ने पर मर्द के भीतर का लावा उमड़ आता है बार-बार!
तमतमाता है,
गुर्राता है, झुँझलाता है,
कसर निकालता है हर प्रकार!
बुद्धि, रीति-नीति-प्रीति, सब स्त्रियाँ हैं, भाग चलो इनसे!
हाँ, कहा था उनने -
दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै -
जब बोध जाग गया तो सुख कहाँ?
औरत?
पापिनी है ठगिनी है माया है!
बेचारे आदमी को वंचित कर दिया
उस परम सुख से
सामने बीन बजती रहे
आँखें मूँदे पड़े पगुराने में जो था!
बेचारे कालिदास मगन थे,
जिस पर बैठे थे उस डाल को काटने में तन्मय!
चेता दिया प्रखर विद्योत्तमा की दीप्ति ने
सुध-बुध खोये समाए थे अपार मोह-पारावार में तुलसी
चौंका दिया रत्ना की एक खरी उक्ति ने!
नारी नरक का द्वार है,
तारण की अधिकारिणी!
देखो न, कितने नर भाग गए उसे त्याग,
अपने स्वर्ग का दरवाज़ा खुलवाने!